अनाज की बोरी ढो ढो के घर ला रहा हूँ ।
बच्चे भी बहुत अधिक संख्या में आ रहे हैं ।
किताब की जगह थाली बसते में भरकर ला रहें है ।
बच्चे रोज अधिक मात्रा में आ जाते है ।
लंच तक स्कूल में रहते हें खा के घर जाते हें ।
सरकार ने बच्चे को खाने के लिए बहुत कुछ दिया ।
अच्छी चीजे घर और बचा हुआ हमने बच्चों को दिया।
आख़िर हम भी सभ्य शिक्षक जो ठहरें ।
कभी कभाल चेकिंग आ जाती है ।
चाबल की बोरी को पानी में डूबा दी जाती है।
आखिर वो भी हमारी तरह ही इन्शान है ।
नोटों पर बिकता उनका भी ईमान है ।
इसलिए तो साफ बच जाते हें ।
आखिर वो भी हमारा दिया ही खाते है ।
गरीब बच्चों की किसे है परवाह ।
थोड़ा सा चावल खाकर करेंगे वाह वाह ।
10 comments:
bhai lagta hai in bachho ki roti kha kar hi aap mota rahe hain...
वाह वाह...वाह वाह... क्या कमाल की कविता है.
यथार्वादी कटाक्ष करती रचना. जारी रहें. आभार.
saty ko sabhi ke samane rakhane ke liye ......dhanyawaad
क्या खूब लिखा है आपने, बहुत गहरा, बहुत भावपूर्ण.
अच्छी रचना है। आज कल यह सभी जगह नजर आ रहा है।गरीबों का नाम ले कर खाने वाले नीचे से ऊपर तक फैले हुए है।
बढिया लिखा है।बधाई।
sahi chitran kiya hai.....bachchon ka naam hai,warna fikra kise hai !
bahut sadhe dhang se kataksh kiya hai............
bhaiyaa, main aaj pahli baar aap blog mein aaya hoon , ye kavita padkar man ro pada ,... yaar is desh mein kya yahi sab hote rahenga ...
aapko badhai
Pls visit my blog for new poems..
vijay
http://poemsofvijay.blogspot.com/
गरीब बच्चों की किसे है परवाह ।
थोड़ा सा चावल खाकर करेंगे वाह वाह
" चित्र और शब्द दोनों ने ही भावुक कर दिया"
Regards
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