Monday, November 24, 2008

कमजोर लाठी

माँ जो अपने बच्चे को ९ महीने कोख में पालती है । एक बाप जो अपने बच्चे के सपने को पुरा करने के लिए कोल्हू की बैल की तरह पिसता रहता है। अपने दामन से उम्मीद लगाये की एक दिन एसा आएगा जब मेरा बेटा बार होकर मेरी सेवा करेगा और मेरे बुढापे की लाठी बनेगा । माँ बाप के साये में बच्चे बड़े तो हो जाते है पर अपना मात्री और पीत्री धरम भूल जाते है । माँ बाप बोझ लगने लगते है । उन्हें ये बच्चे सरे दुखो का कारण लगने लगते है । जिससे बचने के लिए ये लड़के अपने माँ बाप को वृधा आश्रम तक भेज देते है । इन लड़कों को प्यार की शिक्षा उस पतंगे से लेनी चाहिए जो जानती है की आग की रोशनी उसे जला देगी फिर भी आग के अगल बगल ये घुमती रहती है । एक भवरा जिसे कमल की पंखुडियों से इतना प्रेम होता है की जब शाम के वक्त कमल अपनी पंखुडियों को समेटता है तो भवरा उन्ही पंखुडियों में रहकर अपनी जान दे देता है । उन्हें प्यार सीखना होगा उन जातक पक्षी से जिसे सावन की बूंदों से इतना प्यार होता है की उसकी पहली बूँद के लिए वे महीनो इन्तजार करतें है मेरा सवाल है उन बेटों से जो अपने माता पिता को बुढापे में बोझ समझतें है । जरा अपने दिल के अन्दर झांक कर देखो जरा भी तुममे शर्म बाकि है तो सोंचो तुम भी एक दिन पिता बनोगे बुढापा तुम्हे भी अपनी आगोश में ले लेगा फिर तुम भी पछताओगे और अपने कर्मों को याद करोगे ।
एक लाठी जो टूट गया ।

एक सपना मुझसे रूठ गया ।

मेरा दामन मुझसे ही छूट गया ।

एक लाठी जो टूट गया ।

बड़ी अरमानो से बागवा सजाया था ।

काँटों में रहकर फूलों का जहाँ बसाया था ।

जाने वो बागवा भी कहीं छूट गया ।

एक लाठी जो टूट गया ।

पहली बार जब तुने कदम उठाया था ।

सारे गमो को भूलकर हमने जसं मनाया था ।

भगवान् भी मेरी खुशियों को लूट गया ।

एक लाठी जो टूट गया ।


3 comments:

अखिलेश सिंह said...

वाह भाई धीरेन्द्र आप ने बिल्कुल ही अपने ब्लॉग के नाम से मिलता जुलता आलेख लिखा है। बकवास ..... वैसे आपकी भावनाए काफी अच्छी हैं....

परमजीत सिहँ बाली said...

आलेख और रचना के भाव बहुत सुन्दर हैं।यह आज की सामयिक समस्या है जो निरन्तर बढती ही जा रही है।

राजीव करूणानिधि said...

bahut hi baawnatmak mudde par baat kahi gyee hai. log apne buzurgon ki andekhi karte waqt ye bhool jate hain ki unka bhi bhawishya yahi hai...